पूरी दुनिया में बसे विभिन्न धर्मों के अनुयाइयों द्वारा अपने भगवान, गुरू का जन्मदिन बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। सर्वधर्म संपन्न भारत देश में हर धर्म के लोगों को बिना किसी भेद-भाव के अपने धार्मिक आयोजन करने की आजादी है। ऐसे में यहां के हर धार्मिक उत्सव में सोने पे सुहागा का काम हिन्दुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब पूरा कर देती है, जब किसी एक धर्म के पर्व-त्यौहार में दूसरे धर्म के लोग भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं।
फिर बात रामलीला में मुस्लिम युवकों की राम, भरत या हनुमान बनने की हो या फिर रमज़ान के दौरान हिन्दू धर्मालम्बियों द्वारा इफ्तार के आयोजन की। ऐसे में ये कहना गलत न होगा कि ये ही हमारी कौमी एकता, आपसी भाई-चारे के ऐसे बहुमूल्य उदाहरण हैं जिस पर अखण्ड भारत की नींव कायम है।
जन्माष्टमी के इस शुभ अवसर पर इस साल आप भी दर्शन कर आइये एक अनोखी मज़ार का जहां सैकड़ों सालों से जन्माष्टमी का त्यौहार भारत के लोगों के लिए किसी अपवाद से कम नहीं है।
मज़ार में मनाई जाती है जन्माष्टमी
आपसी भाईचारे की ये बरसों पुरानी मिसाल राजस्थान के झुंझुनू जिले के चिरवा स्थित नरहड़ दरगाह शरीफ़ में देखने को मिलती है। जिसे हज़रत हाज़ी शकरबार दरगाह के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ मुस्लिम समुदाय द्वारा पिछले लगभग 400 सालों से हिन्दुओं के साथ मिलकर कृष्ण जन्माष्टमी बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है।
हर साल लगता है रौनक-मेला
हर साल जन्माष्टमी के अवसर पर यहां तीन दिनों का मेला लगता है। जिसमें राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, पंजाब, दिल्ली, मध्यप्रदेश एवं महाराष्ट्र से आये श्रद्धालु हिस्सा लेते हैं। मज़ार की इंतजामिया कमेटी लगभग सात सौ बर्ष पुरानी है। जिसके बुजुर्ग सदस्य बताते हैं कि जन्माष्टमी में लगने वाला मेला वैसे ही शानदार होता है जैसा कि हाज़ी शकरबार शाह बाबा के उर्स का मेला।
इस दौरान मज़ार में रतजगा का कार्यक्रम ठीक वैसे ही होता है जैसा कि देश के हिन्दू मंदिरों में। मज़ार में बकायदा श्रीकृष्ण चरित्र नृत्य नाटकों, भजन-कीर्तन का आयोजन होता है। अष्टमी को पूरी रात दरगाह परिसर में चिड़ावा के प्रख्यात दूलजी राणा परिवार के कलाकार अपनी प्रस्तुति देते हैं। जन्माष्टमी के अवसर पर अष्टमी व नवमी के दिन यहाँ लगने वाली रौनक देखने लायक होती है।
कौन थे शकरबार शाह बाबा
बाबा के बारे में कमेटी के सदस्य बताते है कि बाबा अजमेर के सूफी संत मोइनुद्दीन चिश्ती के समकालीन थे। राजस्थान एवं हरियाणा में बाबा को लोक देवता के रूप में पूजा जाता है। यहां के लोगो अपने हर दुःख-सुख में बाबा को जरूर याद करते हैं। वहीं इस मज़ार में किसने और कब से जन्माष्टमी मनाने की प्रथा शुरू की इस बारे में कोई भी ठीक से नहीं बता पाता। मगर पूरा नरहड़ इस बात पर खासा गर्व महसूस करता है कि वहां के निवासी पूरे देश में भाई-चारे की अनोखी मिसाल के लिए जाने जाते हैं।
जुड़ी हुई है कई मान्यताएं
इस मज़ार से कई मान्यताएं भी जुड़ी हुई हैं। अक्सर लोग अपने बच्चों के मुंडन एवं नवविवाहित जोड़े मन्नत, आर्शीवाद लेने यहाँ आते है। वहीँ दरगाह के परिसर में एक विशाल पेड़ है जिस पर ज़ायरीन अपनी मन्नत के धागे बांधते हैं। मन्नत पूरी होने पर गाँवो में खास कार्यक्रम होता है। जिसमें महिलाएं बाबा से जुड़े लोकगीत जकड़ी गाती हैं। दरगाह में बने संदल की मिट्टी को खाके शिफा कहा जाता हैं जिन्हें लोग श्रद्धा से अपने साथ ले जाते हैं। मान्यता है कि इस मिट्टी को शरीर पर मलने से कई रोग दूर हो जाते हैं।
मज़ार में चांदी का एक दीपक हर समय प्रज्वल्लित रहता है जिसका बना काजल भी बड़ा ही चमत्कारी माना जाता है। लोगों का विश्वास है कि इसे लगाने से आंखो के रोग दूर हो जाते हैं। यहाँ आयें श्रद्धालुओं को तीन दरवाजों से होकर गुजरना पड़ता हैं। पहला दरवाजा बुलंद दरवाजा है, दूसरा बसंती दरवाजा और तीसरा बगली दरवाजा है। इसके बाद मजार शरीफ़ और मस्जिद है। बुलंद दरवाजा 75 फीट ऊंचा और 48 फीट चौड़ा है। मज़ार का गुंबद चिकनी मिट्टी से बना हुआ है जिसमें पत्थर नहीं लगाया गया है। कहते है कि इस गुंबद से शक्कर बरसती थी इसलिए बाबा को शक्करबार नाम मिला था।
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