रंगो के त्यौहार होली का मज़ा तब तक अधूरा है जब तक उसमे भांग का रंग ना मिल जाए। मगर भांग के नशे का भी क्या कहना है इससे बनी ठंडाई के कुछ घूंट भरते ही मानों इंसान का दूसरा जन्म हो जाता है। उसके बाद तो जो तमाशा लगता है वो इसका मजा़ लेने वालों के लिए किसी सजा से कम नहीं होता। यानी की भांग एक मादक पेय पदार्थ है।
जिसके विषय में हमेशा से हमारी धारण नकारात्मक ही रही है। जो कि काफी हद तक सही भी है। मगर फिर भी भांग का प्रयोग बडे़ पैमाने पर नशे के अलावा कई और कामों के लिए भी किया जाता है ऐसा शायद चंद विरले ही जानते होंगे। रेलयात्री डॉटइन पर पढि़ए भांग से जुडे़ कुछ अजीबों-गरीब तथ्यों के बारे में…
भांग की खेती के इलाके
पुराने ज़मानें में पणि समाज द्वारा बड़े पैमाने पर इसकी खेती की जाती थी जिसे अंग्रेजी शासन के दौरान ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने कब्ज़े में ले लिया था। पहाड़ों के राज्य उतराखंड के गढ़वाल क्षेत्र के चांदपुर को भांग का घर कहा जाता है। यहाँ इसके पौधे बहुत बड़ी तादाद में पाये जाते हैं। वहीं बरसात के जाते ही उतराखंड के टनकपुर, रामनगर, पिथौरागढ़, हल्द्वानी, रानीखेत, अल्मोड़ा, बागेश्वर एवं गंगोलीहाट आदि में इसके सैकड़ों पौधे देखने को मिल जाते हैं।
उतराखंड की विरासत- भंगोली शिल्प कला-
प्रचीनकाल से ही उत्तराखंड के कई क्षेत्रों में भांग के पौधों के अलग अलग हिस्सों से कई वस्तुएं बनाई जाती रहीं हैं। यहाँ के लगभग हर घर में भंगोली शिल्पकला से विभिन्न वस्तुएं बनाई जाती थी। आज भी उन्नयानि, जौलजीवी, नंदादेवी में लगने वाले मेलों में भांग से बनी भंगोली दरी, रस्सियाँ, कुथले (थैले), गददे और चादरें बिकती हैं। जिनके बारे में कहा जाता है कि ये ठण्ड में गर्म और गर्मियों में ठण्डी होती हैं।
कई लोग तो इसकी मजबूती के चलते इसकी बोरियां बनाकर उसमें खाद, गुड़, अनाज रखते हैं। वहीं बरसों पहले तक भांग के पौधे से पहनने के लिए कपड़े भी बनाए जाते थें। इसकी बनी दरियों पर बताशे सुखाने का काम भी किया जाता है क्योंकि उस पर बताशे चिपकते नहीं है। मगर अधिक मेहनत, कम कमाई, कला का सही से संरक्षण ना होना, इसकी खेती पर प्रतिबंध और बाजार में मशीनों द्वारा बुनी दरी, चटाई के असानी से उपलब्ध होने के कारण ये अदभुत शिल्पकला मरणासन्न अवस्था में जा पहुंची है। आज इसके पुश्तैनी दस्तकार खोजे ही मिलते है। हालाँकि इसके बनाने वाले एवं इस्तेमाल करने वाले बताते है कि भंगोली शिल्पकला से बनी वस्तुएं सुंदर, मजबूत एवं टिकाऊ होती हैं।
भांग के भरोसे टिकी है एलोरा की गुफा भी-
महाराष्ट्र के औरंगाबाद के नजदीक स्थित 1500 साल पुरानी एलोरा की गुफा पर किये एक रिसर्च में आर्कियोलाजिकल केमिस्ट राजदेव सिंह एवं उनके सहयोगी एम एम देसाई, बाटनी प्रोफेसर- बाबा साहेब अम्बेडकर मराठवाडा युनिवर्सिटी ने अपने शोध में पाया की इस गुफा की निर्माण सामग्री में भांग मिलाई गई थी। जिस वजह से गुफा और इसके अन्दर की मूर्तिया अभी तक सही सलामत हैं।
यहाँ से लिए गए नमूने की जांच में 10 प्रतिशत भांग मिलने की बात सामने आयी है। जबकि अजंता की गुफा में भांग नहीं होने के कारण वहाँ की गुफा एवं मूर्तियां एलोरा की तुलना में खस्ताहाल नज़र आने लगी हैं। शोध में यह बात भी सामने आई है कि छठीं सदी के दौरान बनी अधिकांश इमारतों के निर्माण में भांग का इस्तेमाल किया गया था। वहीं ग्यारहवी सदी में बने महाराष्ट्र के दौलताबाद के देवगिरी किले की निर्माण सामग्री में भी भांग मिलाई गई थी।