सोशल मीडिया से सुलझेगी रेलयात्रियों की परेशानी ?

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लगभग पिछले एक महीने से रेलमंत्री सुरेश प्रभु मीडिया की खबरों में है। जिसका कारण अब किसी से छुपा नहीं है। प्रभु द्वारा टिवटर के जरिये जिस तरह कभी अकेले सफर कर रही महिला यात्री की परेशानी को सुलझाया गया फिर स्कूल टूअर पर गए बच्चों के लिए खाना-पानी उपलब्ध करवाया गया उसके बाद नवजात बच्चों के लिए दूध और डाक्टर की व्यवस्था की गर्इ। ये सभी प्रयास सच में प्रशंसनीय है। अपनी इन त्वरित कार्रवाइ के जरिये रेल मंत्री ने भारतीय रेलवे का एक नया एवं सुखद चेहरा देश के सामने लाने का एक र्इमानदार प्रयास किया है। इसमें कोर्इ दो राय नहीं है कि रेल मंत्री द्वारा जिस प्रकार क्रिसमस के महीनें में टिवटर के जरिये कर्इ रेल यात्रियों की छोटी-बड़ी जरूरतों, समस्याओं का हल मिनटों में कर दिया गया। इससे रेलयात्रियों को तो  इसका लाभ मिला ही रेल मंत्रालय भी अपने इस नए प्रयोग से खासा खुश और संतुष्ट नजर आया। क्रिसमस के ठीक पहले मानों इस बार सांता क्लाज लोगों की मदद के लिए बच्चों को तोहफे बांटने पहुँच गया हो। वो भी नार्थ पोल की बजाए सीधे भारतीय रेल मंत्रालय से इधर आप ने टिवट किया उधर खाने का सामान, दूध की बोतल, व्हील चेयर, डाक्टर आदि हाजिर।

डिजिटल इंडिया के चश्में से देखने में भले ही यह मुहिम अच्छी लगे लेकिन ऐसे कर्इ सवाल है जो रेल मंत्रालय एवं रेलयात्रियों दोनों के इस तरीके को नाकाफी बताते है। रेलयात्री डाटइन पर जानिए इसके फ़ायदे और नुकसान के बारे में।

27 नवंबर को जब नम्रता महाजन द्वारा महाराष्ट्र में शालीमार लोकमान्य तिलक रेलगाड़ी से टिवट कर किसी पुरूष यात्री द्वारा उन्हें परेशान करने की घटना का संदेश रेलमंत्री को भेज कर सहायता मांगी गर्इ, उस समय उस रेलगाड़ी में सफर कर रहे बाकी के सहयात्री कहा थे ? मध्यस्थता कराने का प्रयास किया या नही ? शायद नहीं! तो क्या ये हमारे असंवेदनशील हो रहे समाज की बानगी है ? क्या ये मामला इतना बड़ा हो गया था कि इसके लिए रेल मंत्री को स्वयं हस्तक्षेप करना पड़ा ? रेलवे अपनी हर रेलगाड़ी में रेलवे पुलिस की व्यवस्था करती है। उस मूल सुविधा का क्या हुआ ? जबकि शालीमार लोकमान्य तिलक रेलगाड़ी का सफर लगभग 2000 किलोमीटर के आस-पास का है। अंत में उस पुरूष यात्री को दूसरे डिब्बे में भेज दिया गया क्योंकि पूरा मामला पुरूष यात्री की सीट के कन्फर्म ना होने का और उससे जुडे़ कन्फयूशन का था।

 वही बीमार पिता के साथ यशवंतपुर-बिकानेर एक्सप्रेस से यात्रा कर रहे रेलयात्री पंकज जैन को जब अपने पिता के लिए व्हील चेयर की जरूरत महसूस हुर्इ तो उसने भी सीधे रेल मंत्री को टिवट कर मदद की गुहार लगा दी। जिसके जवाब मे रेलवे द्वारा वक्त रहते उसकी मदद भी की गर्इ। जबकि रेलवे में व्हील चेयर लेने की पूरी प्रकिया है। ऐसे में क्या उस यात्री को यात्रा से पहले इसकी जानकारी नहीं जुटा लेनी चाहिए थी ? यहाँ हो सकता है कि उस रेल यात्री के दिमाग में ये बात नहीं आयी हो। या उसे रेलवे से व्हील चेयर लेने की प्रकिया के बारे में ना पता हो। ऐसे में क्या रेलवे को अपनी मेडिकल संबंधी सुविधा का खुल कर प्रचार नहीं करना चाहिए ? या रेलमंत्री को हर किसी यात्री की व्यकितगत सहायता टिवट मिलने के बाद करनी चाहिए ?

रेलवे अपने यात्री से उसके डाक्टर होने के बारे में तो जानकारी यात्रा के लिए फार्म भरते समय जुटा लेती है। वही यदि कोर्इ यात्री स्वयं या उसके साथ यात्रा कर रहा उसका कोर्इ रिश्तेदार गंभीर रूप से बीमार तो नहीं है, इस बारे में पूछने का कष्ट रेलवे कभी नहीं करता। अगर ऐसा हो तो रेलवे इस दिशा में संबंधित यात्री की सहायता कर उसकी परेशानी कम कर सकता है। बलिक इसके लिए रेलवे द्वारा बकायदा एक सेवा शुरू की जा सकती है। जो कि हर बार टिवट द्वारा शायद संभव नहीं हो पाए। क्या ऐसे मामलों के लिए रेलवे के पास एक पूरी व्यवस्था होनी चाहिए ? भारत में रोजाना ऐसे हजारों लोग रेल से सफर कर अपना या अपने किसी सगे-संबंधी का इलाज कराने देश के एक कोने से दूसरे कोने आते-जाते रहते है।

हालाँकि ऐसा नहीं है कि भारतीय रेलवे द्वारा इस दिशा में कोर्इ कदम नहीं उठाया गया है। रेलवे में मेडिकल संबंधी कुछ नियम जरूर है लेकिन क्या उन्हें पर्याप्त कहा जा सकता है। प्रत्येक रेलगाड़ी में प्राथमिक चिकित्सा प्रशिक्षित कुछ रेल कर्मचारी होते है जिनके पास फस्ट एड बाक्स भी होते है। पैंट्रीकार मैनेजर, रेलगाड़ी का गार्ड, रेल सुपरीटेंडेट आदि को इसके लिए प्रशिक्षित किया जाता है। वही आपातकाल जैसी सिथत से निपटने के लिए नजदीक के रेलवे स्टेशन में डाक्टर की व्यवस्था करने का प्रावधान भी है। मगर जानकारी के अभाव एवं रेलवे द्वारा सही रूप से इन सब सुविधाओं का प्रचार ना करने के कारण यात्रियों को इनका अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता।

वही बात अगर स्कूल टूअर पर गयें स्कूली बच्चों के खाने पीने की व्यवस्था या बात नवजात बच्चे के लिए दूध आदि की व्यवस्था की करें तो भूल स्कूल प्रबंधन और नवजात के माता-पिता की मालूम पड़ती है। जिन्होंने शायद अपनी यात्रा आधे-अधूरे इंतजाम के साथ शुरू की हो। स्कूल टूअर पर गये बच्चों के खाने-पीने का ख्याल रखना स्कूल की जिम्मेदारी है इसमें कोर्इ शक नहीं। वही छोटे बच्चे के साथ यात्रा करते समय उसके लिए जरूरी चीजें लेकर चलना चाहिए ये सामान्य जागरूकता का विषय है। ऐसे में बहुत संभव है कि स्कूल प्रंबधन का खाने पीने का सामान या नवजात के लिए लाया गया दूध खत्म हो गया हो। जिसकी वजह रेलगाड़ी का तय समय से घंटो विलम्ब से चलना था। लेकिन एक बात जिस पर प्रकाश डालना जरूरी है वो यह है कि रेलगाड़ी में पैंट्रीकार का नहीं होना। जिस कारण भूखे नौनिहालों को खाना नहीं मिल पाया, ना ही नवजात बच्चे के लिए दूध का इंतजाम हो पाया। क्या इसे रेलवे विभाग की बड़ी गलती नहीं मानना चाहिए ? सामान्यता 1000 किलोमीटर से अधिक लम्बी दूरी की रेलगाडि़यों में पैंट्रीकार की व्यवस्था होती है। मगर फिर भी ऐेसी कर्इ रेलगाडि़याँ है जिनमें अब तक ये सुविधा नदारद है।

तेजी से डिजीटल हो रही दुनिया में सोशल नेटवर्किग साइट के जरिये समस्या का हल खोजना गलत नही है। मगर इसे ही बुनियादी समस्याओं का हल मानना शायद गलत होगा। सोशल मीडिया आपातकाल सिथति में एक विकल्प जरूर बन सकता है किंतु भारतीय रेलवे जैसे बड़े उपक्रम की मूलभूत समस्याओं का हल नही। जिसके कर्इ कारण हो सकते है। भारत जैसे बडे़ देश में कर्इ हजार लोग ऐसे है जो सोशल मीडिया को नहीं समझ पाते। गरीब और कम पढ़ा लिखा तबका नहीं जानता की इटरनेंट, टिवटर, फेसबुक किस चिडि़या का नाम है। साथ ही हमारी वृद्ध हो चुकी पीढ़ी या फिर जिनका जीवन ग्रामीण क्षेत्रों में गुजरता है उनके लिए इस माध्यम का उपयोग कर पाना आसान नहीं है। अगर सोशल मीडिया को एक सुदृढ़ हल मान भी लिया जाए तब भी कर्इ चुनौतियां है जिन्हें सुलझा पाना आसान नहीं। जैसे की रेलवे या कोर्इ अन्य विभाग कैसे रोजाना हजारों शिकायत भरे टिवटस का हल निकाल पाएगा ? लोगो द्वारा विभाग को भेजे जाने वाले टिवटस की सत्यता का क्या? स्कूल बच्चों के लिए टिवट करने वाले उनके शिक्षक का स्वयं मानना है कि उन्होंने ये टिवट महाराष्ट्र की घटना से प्रेरित हो कर किया था। उनका भी ये मानना है कि उस टिवट का जो लाभ उन्हें और उनके साथियों को मिला वो उनके साथ यात्रा कर रहे बाकी के रेलयात्रियों को नही मिला। डिजीटल मीडिया, इंटरनेट एक तकनीकी माध्यम है जिसका भरोसा हमेशा नही किया जा सकता। ऐसे में सोशल मीडिया के भरोसे सफर करना या टिवट के जरिये समस्या का हल खोजना शायद भरोसेमंद निर्णय ना हो। टिवटर द्वारा अपनी समस्या का हल खोजने का प्रयास कर क्या हम एक गलत परंपरा को बढ़ावा नहीं दे रहे  ? इस बारे में रेल मंत्रालय और रेलयात्रियों दोनों का सोचना होगा।