- जयपुर रेलवे स्टेशन पर मिले कुली न0 15 से –
जीवन में कर्इ चुनौतियों से रोज़ाना दो चार होती मंजू ने अपने कुली पति महादेव की मृत्यु के बाद उसके काम को अपनाने का निर्णय लिया, ताकि वो अपने तीन बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सके। पति के कुली मित्रों की सहायता से उसने अपने मृत पति का रेलवे कुली लाइसेंस अपने नाम पर हस्तांतरित करा लिया। मंजू के अनुसार शुरूआत के 6 महीने उसके लिए काफी कठिनार्इ भरे थे। पुरूष प्रधान कार्य कर पाना उसके लिए आसान नही था। कर्इ बार तो एक मामूली सूटकेस भी उसे एक पहाड़ सा लगता था। उसके अलावा उसे कर्इ अन्य परेशनियों का भी सामना करना पड़ा। जिसमें से एक मुख्य चुनौती थी- यात्रियों का मंजू को एक कुली के रूप में स्वीकार नहीं किया जाना। जिसका सीधा असर उसकी आमदनी पर पड़ता था। इस कारण कर्इ बार उसे अपने कुली बनने के निर्णय पर भी संदेह हुआ।
इस तनाव के कारण उसे अस्पताल में भी भरती होना पड़ा। उसके कुछ दिनों के बाद मंजू ने दोबारा साहस और पूरी मेहनत से अपने कुली के काम को ही करने का ठोस निर्णय लिया। आज मंजू अपने इस काम में खासी पक्की हो चुकी है। मंजू अब जयपुर आने वाले रेलयात्रियों के सामान के बोझ के साथ ही अपने 3 बच्चों की परवरिश का बोझ भी अकेले ढो रही है।
- 22 साल की उम्र में बनी देश की पहली गेटवूमैन –
लखनऊ के मल्होर रेलवे स्टेशन पर तैनात मिर्जा सलमा बेग भारतीय रेलवे की पहली वीमेन गेटमैन है। अमूमन इस काम को पुरूष ही करते आये है। मगर सलमा ने इस परंपरा को तोड़ एक नर्इ शुरूआत की। जब रेलवे में नौकरी करने वाले गेटमैन पिता की दिनों-दिन खराब होती तबियत और लकवाग्रस्त मां की परेशानी ने परिवार को आर्थिक संकट में डाल दिया। तब घर की बड़ी बेटी सलमा ने पिता की नौकरी स्वयं करने को निश्चय किया। जिसका घर-परिवार सहित सभी दोस्तों, रिश्तेदारों ने घोर विरोध किया। ऐसे में रेलवे के नियम के तहत घर के किसी दूसरे सदस्य को उनके पिता के स्थान पर नौकरी हस्तांतरित तो की जा सकती थी मगर सलमा का कोर्इ भार्इ नहीं था और लड़कियों को ऐसी नौकरी करने की इजाज़त नहीं थी ऐसे में सलमा के परिवार के लिए इस सिथत से निपट पाना काफी कठिन था। वही प्रशिक्षण से लेकर डयूटी के शुरूआती दिनों तक प्रशिक्षक और साथी कर्मचारी सभी ने सलमा का विरोध किया। ऐसा पहले कभी भारतीय रेल के इतिहास में नहीं हुआ था कि कोर्इ महिला गेटमैन का मेहनती एवं कठोर काम करें।
मगर सलमा भी अपने इरादों की पक्की थी। उसने भी ठान लिया था कि वो लोगों की इस सोच को बदल कर रहेगी। फिर जनवरी 2013 को अपनी सफल प्रशिक्षण के बाद सलमा को गेटमैन की नौकरी मिल गर्इ। आज सलमा रोजाना 12 घंटे की डयूटी करती है। इतना ही नहीं महिला होने के नाते आज तक उसने डयूटी के दौरान किसी प्रकार की अतिरिक्त छूट या विशेष व्यवस्था करने की कोर्इ मांग तक नहीं की। वो अपनी डयूटी का हर वो काम करती है जो उसके पुरूष सहकर्मी करते है । जीवन में आयी परेशानी के कारण सलमा की पढार्इ बीच में ही छूट गर्इ थी। अब वो अपनी छोटी बहन को पढ़ा कर अपने पढ़ने के सपने को साकार कर रही है।
- माया का सपना बेटे को दिलानी है उच्च शिक्षा –
अप्रैल 2011 में अपने कुली पति की मौत के बाद 40 साल की माया के पास अपने और अपने 6 साल के बेटे गौरव की जिंदगी के बोझ को उठाने की चुनौती आ खड़ी हुर्इ तो उसने भी कुली बन जिंदगी के इस बोझ को लुधियाना रेलवे स्टेशन से आने-जाने वाले मुसाफिरों के सामान के बोझ में बदल दिया।
अब वह रोजाना 150 से 200 रू कमा लेती है। जो कि स्टेशन के पुरूष कुलियों के मुकाबले आधा है। फिर भी वो गर्व से कहती है कि मेहनत करने में क्या बुरा है। उसे किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता। हालांकि पति की नौकरी के लिए उसे उन सारे नियम-कानून परीक्षणों से गुजरना पड़ा जो रेलवे द्वारा किसी भी कुली के लिए बनाए गए है।अब माया के जीवन का एक मात्र लक्ष्य अपने बेटे गौरव को उच्च शिक्षा दिलवाना है।
- हज़ारों रेल मुसाफिर की सुरक्षा है फिरोज़ा आपा के भरोसे –
लगभग 50 साल की उम्र में 20 किलो के भारी बैग को कांधे पर लादकर 5 किलोमीटर की दूरी तक रेलवे की पटरियों का रोजाना 12 घंटे निरीक्षण और मरम्मत करना फिरोजा आपा के रोजाना का काम है। फिरोजा बानों जिसे उनके सहकर्मी इजजत से फिरोज़ा आपा (बड़ी बहन) कह कर पुकारते है। वह लखनऊ के चार बाग स्टेशन पर तैनात उतर रेलवे की पहली ट्रैकवीमेन है।
फिरोजा बानों के पति रेलवे कर्मचारी थे एक दिन वो अचानक ही गायब हो गए। लम्बे समय तक जब उनका कोर्इ पता नही चला तो छह बेटियों को अकेले पाल रही फिरोजा बानों ने रेलवे से पति की नौकरी उन्हें देने की गुज़ारिश की। मगर रेलवे ने उनकी इस बात को अनसुना कर दिया क्योंकि वो एक महिला थी। अपने पति की नौकरी पाने के लिए फिरोज़ा बानों को लम्बी कानूनी लड़ार्इ लडनी पड़ी। अंतत: साल 2004 में उन्हें अपने पति की नौकरी मिल गर्इ और वो नार्थ रेलवे जोन की पहली ट्रैकवीमेन बन गर्इ।
आज वो अपने कर्इ पुरूष साथियों की तुलना में बेहतर काम देती है। लखनऊ रेलवे स्टेशन से गुजरने वाली रेलगाडि़यों में सफर करने वाले हजारों मुसाफिरों की हिफाजत की जिम्मेदारी आज उनके भरोसे है। जिसे वो पूरी मेहनती और र्इमानदारी से निभाती हैं।
- आत्मसम्मान की खातिर चुना कुलीगीरी का काम –
अजमेर डिवीजन के आबूरोड़ रेलवे स्टेशन पर महिला कुली का काम कर रही मणीबेन की कहानी भी अन्य महिला कुलियों की दर्दभरी कहानी से बिलकुल भी जुदा नहीं है। एक बेटे और दो बेटियों की मां मणीबेन के कुली पति राजेन्द्र कुमार की मौत भी अचानक हो गर्इ थी। उनकी मौत के बाद मणीबेन ने चार सालों तक अपने परिवार को पालने के लिए दूसरों के घरों में साफ-सफार्इ का काम किया। मगर जरूरत के मुताबिक कमार्इ का ना हो पाना और ऊपर से हर रोज़ अपने सम्मान को दांव पर लगाना मणीबेन को सालने लगा। इस कारण उन्होंने वो काम बंद कर पति के साथी रहे कुलियों और नार्थ वेस्टर्न एम्पलाइज यूनियन संघ की सहायता से अजमेर रेलवे डिवीजन में पति की नौकरी प्राप्त कर ली।
रेलवे के अलग-अलग विभाग में काम कर रही इन सभी महिलाओं ने कुली, गेटमैन, ट्रैकवीमेन जैसे काम को अपनाकर पुरूषवादी विचारों को तो बदल ही दिया। साथ ही वो उन महिलाओं के लिए भी एक मिसाल बन चुकी है जिन्हें लगता है कि कुछ चुनिंदा काम सिर्फ पुरूष वर्ग के लिए ही बने है।
Hats off to Women , shadow of God.