हमारी धरोहर हमारे देसी मार्शल आर्ट्स !

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Indian Martial Arts

गौतम और गाँधी की कर्मभूमि- भारत के लोगों को वैसे तो अहिंसक माना जाता है। मगर इतिहास में ऐसी कई घटनाएं घटी जिसके लिए भारतियों को स्वयं को युद्धकला के लिए भी तैयार करना पड़ा। हालाँकि इतिहास में ऐसी कोई घटना दर्ज नहीं है जिससे ये पता चले कि भारतीयों ने कभी किसी देश या धर्म पर पहले आक्रमण किया हो। ऐसे में बात अगर भारतियों द्वारा तैयार की गई विभिन्न युद्धकलाओं की करे तो भारतीयों ने कई प्रकार की युद्ध कलाओं का निर्माण किया था। मगर दुर्भाग्य से वे युद्ध कलाएं आज लुप्त हो रही हैं एवं बड़ी मुश्किल से ही देखने को मिलती हैं। अगर आप उन युद्ध कलाओं के बारे में जानना चाहते है तो घूम आइये उन राज्यों में- .

गतका, पंजाब-

Gatka Fight

मूलतः लकड़ी के डंडे से लड़ी जाने वाली ये युद्ध कला पंजाब का मार्शल आर्ट है। इस युद्ध कला का जन्म बरसों पहले सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोविन्द सिंह जी की फौज के द्वारा किया गया था। जिसे उनकी फौज के सैनिक जिन्हें निहंक कहा जाता है वे इसका इस्तेमाल करते थे। मगर समय के साथ इस कला में काफी बदलाव हुआ इसमें तलवार के साथ कई अन्य शास्त्र जोड़े गए। लुधियाना में लगने वाले ‘किला रायपुर’ मेले सिख धर्म के अन्य एवं त्योहारों में इसका जमकर प्रदर्शन होता है।

कलारीप्याटूट, केरला

Sothh indian style of martial art

यह मलयाली भाषा के दो शब्दों की संधि से बना नाम है। इसमें कलारी का अर्थ विद्यालय एवं पयाटूट का अर्थ युद्ध या व्यायाम होता है। इतिहास के जानकारों के अनुसार ये युद्ध कला सबसे प्राचीन भारतीय युद्ध कला है जिसका क्षेत्र केरल से लेकर श्रीलंका एवं मलेशिया तक है। उजहिची या गुगली के तेल से मालिश एवं तलवार के इस्तेमाल से लड़े जाने वाले इस मार्शल आर्ट के निर्माण के बारे में माना जाता है कि इस कला का निर्माण भगवान् परशुराम ने किया था। तलवार के साथ पैरों के ख़ास इस्तेमाल वाली इस युद्ध कला में शरीर को व्यायाम द्वारा काफी कठोर बनाया जाता है। केरल की संस्कृति के इस अहम् हिस्से का प्रदर्शन केरल के सभी त्योहारों होता है। आप कोच्ची, मुन्नार, थेकड़ी, तिरुवनंतपुरम आदि के सफ़र के दौरान इसका मज़ा ले सकते हैं।

थोडा, हिमाचल प्रदेश

himachal pradesh vaisakh festival

लकड़ी के तीर-धनुष के इस्तेमाल वाली इस युद्ध कला के बारे में कहा जाता है कि इसका इतिहास महाभारत से जुड़ा हुआ है। वैसाखी के समय यहाँ 500-500 लोगों के दो दल बनाकर स्थानीय लोग इस कला का प्रदर्शन युद्ध कला, खेल एवं सांस्कृतिक धरोहर के रूप में करते हैं। दोनों दलों को ‘पशिस एवं साठीस’ यानी कौरव एवं पांडव के वंशज माना जाता है। वैसाख के समय अगर आप शिमला या फिर सिरमौर के नजदीकी क्षेत्रों में जाए तो वहाँ आप इस कला का प्रदर्शन देख सकते हैं। आप बस द्वारा बड़े आराम से वहाँ जा सकते हैं।

हुयेन लंग्लों, मणिपुर

North east historical martial art style
यह पूर्वौत्तर के मणिपुर राज्य की युद्ध कला है। वहाँ के मैती समुदाय को इस कला के निर्माण का श्रेय जाता है। स्थानीय भाषा के इन दो शब्दों के अनुसार हुयेन का मतलब युद्ध होता है जबकि लग्लों का अर्थ कला की जानकारी होती है। 17 वी सदी में स्थानीय मणिपुरी राजाओं द्वारा इसका इस्तेमाल ब्रिटिश लोगों के विरुद्ध किया गया था। इस कला के मुख्यतः दो प्रकार है पहला थांग टा जो कि सशास्त्र युद्ध कला एवं दूसरा सरित सरक है यह शास्त्र विहीन युद्ध कला है इसमें हाथों से मुकाबला किया जाता है जबकि थांग टा में मुख्यता: कुल्हाड़ी एवं ढाल का प्रयोग होता है।

कई बार इसमें तलवार एवं अन्य शास्त्रों को भी इस्तेमाल में लाया जाता है। थांग टा का प्रदर्शन तीन कामों में किया जाता है। पहला तांत्रिक प्रयासों में, दूसरा तलवारबजी की कला प्रदर्शन में एवं तीसरा वास्तविक युद्ध में। मणिपुर आप रेलयात्रा या बस द्वारा आसानी से नहीं जा सकते मगर देश में समय-समय पर होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में इस कला का प्रदर्शन अलग-अलग राज्यों में होता है।

सिलम्बम, तमिलनाडु-

tamilian oldest style of martial art

दक्षिण भारत के राजवंश चोला, चेला, पांड्या शासकों के काल की ये युद्ध कला काफी वैज्ञानिक युद्ध कला मानी जाती है। सिलम्बम लाठी, मोती, तलवार एवं कवच के रूप में बिक्री से जुड़े प्रमाण तमिल साहित्य सिलपडदीगरम में उपलब्ध है।  तमिल पौराणिक कथाओं में इसकी उत्त्पत्ति का श्रेय भगवान् मुरुगन एवं अगस्त्य ऋषि को दिया जाता है। आधुनिक समय में भी युवाओं को इसकी शिक्षा एक अनुष्ठान के रूप में दी जाती है जो विपत्ति के समय रक्षक का कार्य करें।

मर्दानी खेल, महाराष्ट्र-

marata martiial art

महाराष्ट्र की इस हथियारबंद युद्ध कला के बारे में कहा जाता है कि इसकी उत्पत्ति शिवाजी महाराज के समय मराठा राजवंश द्वारा अंग्रेजों से जंग लड़ने के लिए की गई थी। उस दौरान कोल्हापुर मराठाओं का केंद्र स्थल होता था जिसके आस-पास के गाँव में प्रशिक्षित बुज़ुर्ग नौजवानों को इस युद्ध कला का ज्ञान देते थे। मगर सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद ब्रिटिश हुकूमत ने इस पर पाबंदी लगा दी। इसके बाद उनके दबाव में मर्दानी खेल को लोक खेल में परिवर्तित कर दिया जिसमे महिलाएं बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती थी और इसमें हथियारों के स्थान पर लाठी का इस्तेमाल किया जाने लगा।

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1 COMMENT

  1. बहोत ही अच्छा artical है। जिसे पढ़कर अलग अलग जगह की युद्ध शैली के बारे मे पता चला।

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